छात्रों को सामर्थ्यवान बनाना ही शिक्षा का समग्र उद्देश्य–कुलाधिपति रामभद्राचार्य
शिक्षा का संस्कृति से घनिष्ठ एवं अभेद संबंध–जगद्गुरु रामभद्राचार्य
विश्वविद्यालय संस्कृत विभाग द्वारा “शिक्षा,शिक्षक तथा समाज” विषयक विशेष व्याख्यान आयोजित
भारतीय
परंपरा में शिक्षा परमात्मा की प्राप्ति का मुख्य साधन–पद्मविभूषण रामभद्राचार्य
शिक्षा हमारी आत्मा तथा शिक्षक उसके संचालक– पीठाधीश्वर रामभद्राचार्य
शिक्षा प्राप्ति के उपरांत व्यक्ति संवेदनशील बन जाता है और वह संसार के प्रत्येक जीव के कल्याणार्थ कार्य करने लग जाता है। शिक्षा का उद्देश्य मात्र धन कमाना नहीं है,बल्कि इसका संस्कृति से घनिष्ठ एवं अभेद संबंध होता है।जहां पाश्चात्य समाज शिक्षा को जीविका का साधन मात्र मानता है,वहीं भारतीय परंपरा में शिक्षा का मूल उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति है। शिक्षा वेद का प्रमुख अंग माना जाता है जो हमारा सर्वस्व है।उक्त बातें विश्वविद्यालय संस्कृत विभाग द्वारा जुबली हॉल में “शिक्षा, शिक्षक और समाज” विषय पर आयोजन कार्यक्रम में विशिष्ट व्याख्यान देते हुए चित्रकूट दिव्यांग विश्वविद्यालय,सतना,मध्य प्रदेश के आजीवन कुलाधिपति रामभद्राचार्य ने कहा।उन्होंने कहा कि शिक्षा का प्रथम उल्लेख उपनिषद् में आया है।फिर पाणिनि ने अपने 600 वें सूत्र में इसका विस्तृत वर्णन किया है। विद्या का प्रलयकाल में भी नाश नहीं होता है।
तुलसी पीठाधीश्वर जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने कहा कि शिक्षा हमारी आत्मा और शिक्षक उसके संचालक हैं।जो शिक्षा जानता है और जो शिक्षा का अध्ययन करता है, वही वास्तविक शिक्षक है। उन्होंने भारतीय शिक्षा की अनुगम तथा अधिगम की चर्चा करते हुए कहा कि शिष्य पहले अपने गुरु से शिक्षा पाता है,फिर उसका चिंतन व मनन कर अपने आचरण में उतारता है।जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने कर्मों को सीखता है, वही शिक्षा है। शिक्षा का समग्र उद्देश्य छात्रों को सामर्थ्यवान बनाना है। शिक्षा छात्रों को समर्थ बनाने की जिज्ञासा उत्पन्न करती है। यदि उनमें जिज्ञासा उत्पन्न न हो तो यह हम शिक्षकों का ही दोष माना जाएगा।
कुलाधिपति ने कहा कि जहां व्यक्ति पाश्विक प्रवृति को त्याग कर सभी के कल्याणार्थ कार्य करता है, वही समाज कहलाता है ।धर्म हमें पापकर्म को करने से रोकता है,जिसका वास्तविक अर्थ कर्तव्यों का बोध कराना होता है।कर्तव्यबोध ही हमें सामाजिक बनाता है।
तुलसीपीठाधीश्वर जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने कहा कि काशी और मिथिला वैदुष्य का केंद्र रहा है।मेरा सौभाग्य है कि मैंने स्नातक से डि.लीट्. तक का अध्ययन- अध्यापन वाराणसी से किया। शैशवावस्था में ही आंखों की रोशनी चले जाने के बाद भी मैंने अब तक 211 ग्रंथों की रचना की है जो आगे भी अनवरत जारी रहेगा।
कार्यक्रम में मिथिला विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो सुरेंद्र कुमार सिंह,पूर्व कुलपति प्रो राजकिशोर झा, संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो देवनारायण झा, प्रो विद्येश्वर झा, प्रो रेणुका सिंहा,प्रो रामनाथ सिंह,डा देवनारायण यादव,डा विध्नेशचन्द्र झा,डा आर एन चौरसिया,डा संजीव कुमार झा,प्रो अशोक कुमार मेहता, डा मित्रनाथ झा,डा रामप्रवेश पासवान,डा विश्वनाथ गुहा, प्रो ए के बच्चन,प्रो नारायण झा,डा मंजू कुमारी,डा प्रीति झा,डॉ चौधरी हेमचंद्र राय, डा अखिलेश मिश्रा,डा के सी सिंह,डा रिपू सुदन झा,प्रो हिमांशु शेखर,डा ममता स्नेही,डा विनय कुमार मिश्रा,डा दयानंद झा,मौनी बाबा, मन्ना,राजाराम,डा मुकेश कुमार निराला सहित 150 से अधिक व्यक्तियों ने व्याख्यान में भाग लिया।
कार्यक्रम में भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रचारक कुलाधिपति के साथ उनके संगीत शिक्षक डॉ विशेष नारायण तथा सुश्री ज्योति वैष्णवी के साथ ही उनके अनेक शिष्यों ने भी भाग लिया।
संयोजक डा जयशंकर झा के संचालन में आयोजित विशेष व्याख्यान में अतिथियों का स्वागत संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो जीवानंद झा ने किया, जबकि धन्यवाद ज्ञापन संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो देवनारायण झा ने किया।