विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग में विश्व हिन्दी दिवस समारोह का आयोजन हुआ
दरभंगा विश्व हिन्दी दिवस के अवसर पर विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग में ‘वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारतीय प्रवासियों की हिन्दी सेवा’ विषयक संगोष्ठी आयोजित की गई।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए विभागाध्यक्ष प्रो. उमेश कुमार ने कहा कि हम हमेशा हिन्दी की सेवा में नत हैं । जब हम प्रवासी साहित्य की चर्चा कर रहे हैं तो महात्मा गांधी को याद करना लाज़मी है। प्रवासी हिन्दी लेखन पर उनके द्वारा अफ्रीका में किए गए आंदोलनों का गहरा प्रभाव पड़ा। मॉरिशस में औपनिवेशिक सत्ता द्वारा 1834–1910 के बीच चार–साढ़े चार लाख भारतीयों को ले जाया गया। आज वहां की 52 फीसदी से अधिक आबादी हिन्दी बोलती है। फ़िजी की आधिकारिक भाषा हिन्दी है। इसी तरह दुनिया के कई देशों में हिन्दी बढ़ और संवर रही है। भारतीय संस्कृति की ग्राह्यता भी इसका एक कारण है जिससे हिन्दी सर्वसाधारण में स्वीकृत हो सकी। 11वां विश्व हिन्दी सम्मेलन में तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जी ने कहा था कि योग दिवस के लिए हम विश्व के 177 देशों का समर्थन प्राप्त कर चुके हैं, उसी प्रकार हिन्दी को वैश्विक भाषा बनाने के लिए हम 129 देशों का समर्थन भी प्राप्त कर लेंगे।
संगोष्ठी को संबोधित करते हुए मुख्य अतिथि मानविकी संकायाध्यक्ष प्रो. ए.के. बच्चन ने कहा कि आज हिन्दी का संसार निरंतर बढ़ रहा है। दुनिया भर के भारतीय दूतावासों में हिन्दी दिवस मनाया जा रहा है।
उन्होंने विश्व हिन्दी दिवस की थीम ‘हिन्दी पारंपरिक ज्ञान से कृत्रिम बुद्धिमत्ता तक’ पर भी अपना विचार व्यक्त किया।
वहीं पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. चंद्रभानु प्रसाद सिंह ने कहा कि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में प्रवासी साहित्य उपेक्षित है। रामदेव धुरंधर, सुमन राजे जैसे लेखकों की मुख्यधारा के साहित्य में पर्याप्त चर्चा नहीं हो पाती। इनकी रचनाओं में अपने समय की बेचैनी है।
उन्होंने आगे कहा कि उत्तर पूंजीवादी दौर में हिन्दी केवल साहित्य तक सीमित होती जा रही है। जब भाषा केवल साहित्य तक सीमित हो जाए तो उसका विकास बाधित होता है। अगर ज्ञान–विज्ञान और पाठ्यपुस्तकों की भाषा हिन्दी नहीं होगी तो वह सिमटती चली जाएगी। ऐसे अवसर पर संकल्प लेने की जरूरत है कि साहित्य से इतर भी हिन्दी को समृद्ध करने का प्रयत्न करें तभी ऐसे आयोजनों की सार्थकता है।
वरिष्ठ प्राचार्य प्रो. सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने कहा कि हिन्दी को केवल खास दिवसों पर याद करना स्वस्थ परंपरा नहीं है। हिन्दी को केवल हिंदुओं की भाषा की तरह चित्रित करने की प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है, यह साझी विरासत की भाषा है।
उन्होंने आगे कहा कि हिन्दी के विकास में बाबू–भईया लोगों से अधिक आम जनता का योगदान है। हमारे गायकों–कलाकारों ने दुनिया में हिन्दी के लिए आकर्षण पैदा किया। हिन्दी के वैश्विक विकास में प्रवासी साहित्यकारों की भूमिका का स्मरण करते हुए, इन्हें भी याद रखना बहुत जरूरी है।
कार्यक्रम का संचालन एवं विषय प्रवेश करते हुए प्रो. आनंद प्रकाश गुप्ता ने कहा कि विश्व के 157 देशों में हिन्दी की पढ़ाई होती है। आज बाजार में हिन्दी एक बेहद संभावनाशील भाषा के तौर पर देखी जाती है। आनेवाले समय में हिन्दी अपने सामर्थ्य के बल पर संयुक्त राष्ट्र की भाषा बन सकेगी।
मौके पर विभागीय शिक्षिका डॉ. मंजरी खरे, डॉ. गजेंद्र भारद्वाज, श्री अखिलेश कुमार राठौड़, प्रो. अमित कुमार आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
कार्यक्रम में शोध छात्र सियाराम मुखिया, दुर्गानंद, कंचन, नबी हुसैन, रोहित, जयप्रकाश, सुभद्रा, बेबी, दीपक, समीर सहित स्नातकोत्तर छात्र–छात्राओं की बड़ी संख्या में उपस्थिति रही।